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Bhasha Behta Neer
by Balendu Diwedi

संसार की हर भाषा विकास के अनेक स्तरों से गुजरती है।यदि हम गहराई से देखें तो किसी भी भाषा का विकास मानव भ्रूण के विकास से उसके एक सम्पूर्ण मानव तक के वृद्धमान होने सरीखा है। वस्तुतः कोई भी भाषा पहले किसी अन्य भाषा के गर्भ से जन्म लेती है,उससे ग्रहण और त्याग का अनुशासन अपनाते हुए पलती-बढ़ती है और एक समय के बाद अपने यौवन से होती हुई वृद्धावस्था को प ्राप्त कर मृतप्राय-सी हो जाती है।दुनिया की कोई भी भाषा इसका अपवाद नहीं है।

जहाँ तक हिंदी भाषा का सवाल है,इसका विकास संस्कृत से हुआ माना जा सकता है।किंतु यह सीधे तौर पर संस्कृत से निकली हो,ऐसा भी नहीं है।बल्कि यह पालि,प्राकृत,अपभ्रंश आदि भाषाओं से छनकर आने वाले शब्द-समूहों,ध्वनियों और व्याकरणगत परिवर्तनों का स्वाभाविक परिणाम है।इस प्रकार देखा जाय तो हिंदी भाषा ने अपने विकास का एक लंबा सफर तय किया है। हिंदी का विकास इसकी लिपि देवनागरी के विकास से भी जुड़ा रहा है और उन्नीसवीं सदी से लेकर अब तक हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि ने विकास के सारे अवरोधों को पार करने में कामयाबी हासिल की है।

देखा जाय तो आज हिंदी और देवनागरी लिपि ने अपनी कतिपय विशेषताओं के चलते विश्व की सर्वाधिक समृद्ध भाषा और लिपि का गौरव हासिल कर लिया है।आज यह साहित्य रचना का सर्वाधिक व्यापक माध्यम भी है। यह भारत की सबसे अधिक बोली जाने वाली और प्रयुक्त होने वाली भाषा भी है।किन्तु अभी भी इसे राजभाषा का वह गौरव नहीं हासिल हो सका है,जो प्रत्येक देश की अपनी भाषा को हासिल होता है। 'भाषा बहता नीर' नामक यह पुस्तक इन सभी विषयों और प्रसंगों का अत्यन्त वैज्ञानिक ढंग से विवेचन-विश्लेषण करती है।

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